नारीसर्गअथ द्वितीयोल्लासः

अथ वेदोक्तं नारीगौरवं वक्ष्यामः

अब वेदोक्त नारीगौरव को कहेंगे

१. जायेदस्तम् सेदुयोनिः
॥ ऋ ॥ ३ । ५३ । ४ ।।
वह घर ( गृहाश्रम ) का आश्रय है पत्नी ही घर है ।
विद्या, विज्ञान, सुशिक्षा, न्याय, पुरुषार्थ, प्रीति, प्रेम, दया, करुणा, उदारता, परोपकार, विश्वसनीयता, सेवा, विनय, नम्रता, त्याग, वीरता, शूरता, धैर्य, साहस, सन्तोष आदि उत्तमगुण ही मानव के आभूषण हैं । इन उत्तमगुणों से सुभूषित मानव का निर्माण माता ही कर सकती हैं । यह इस उल्लास में वेदमन्त्रों द्वारा सिद्ध किया जायेगा । माता में विद्यमान बहुत सारे गुणों का वर्णन वेदों में है। उनमें से कुछ गुणों को इस उल्लास में आगे लिखा जाता है। सुखार्थं सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।
ज्ञानाज्ञानाविशेषात्तु मार्गामार्गप्रवृत्तयः ॥ चरक | सू ।। २८ । ३५ ।।
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सब प्राणियों की सब प्रवृत्तियां = सब चेष्टायें – कार्य सुखप्राप्ति के लिये हैं सुख के लिये होती हैं । ज्ञान होने पर मानव सन्मार्ग में और ज्ञान न होने पर कुमार्ग में प्रवृत्त होते हैं ।
नारी की रचना मानवों के निर्माण के लिये हुई है । वह स्वतः निर्माण करती है । उसका ज्ञान जिस प्रकार का होगा वह उसी प्रकार के मानवों का निर्माण करेगी । इसलिये संसार का निर्माता और माता का निर्माता परमात्मा ने माता के स्वरूप का, सामर्थ्य का, कर्त्तव्याकर्तव्य का परिज्ञान वेद द्वारा मानवों को दिया है । उसका दिग्दर्शन नीचे दिया जाता है ।
२. चिदसि मनासि धीरसि दक्षिणासि क्षत्रियासि यज्ञियासि अदितिरसि उभयतः शीर्णी ॥
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।। यजुः ।। ४ । १९ ॥
हे नारि ! तू चित् असि = ज्ञानस्वरूपा, चेतनामयी हो; मनासि = चिन्तनशीला हो; धीरसि = बुद्धिसम्पन्ना हो; दक्षिणासि = उत्साहसम्पन्ना हो; क्षत्रियासि क्षात्रगुणयुक्ता हो; यज्ञियासि = यज्ञ की अधिकारिणी अदितिरसि = माता हो; उभयतः शीर्णी = दोनों अभ्युदय तथा निःश्रेयस की ओर सिर रखने वाली हो । नारी यदि उन्नति की ओर चले तो महान् मानवों का निर्माण कर सकती है । करती है ।

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